वो साबुन के बुलबुले थे
कि थे गोल गोल इन्ध्र्धनुष,
वो सावन के झूले जब छूते
आसमान, तो उड़ लेती थी
मैं भी चमकीले पंख लगा .
वो मुस्कानें थीं मेरा बचपन
वो बर्फ का गोला था जैसे
गर्मियों की दोपहर की पहचान
बरसात के पानी में गली पार
करती मेरी कगाज़ की नाव,
बन जाती मेरी शान.
वो पल थे मेरा बचपन .
मिटटी की गुल्लक थी मेरा
खजाना, जब झूठ बोलने पे
कौवे के काटने का डर लगता था ,
निराले थे वो दिन, जो मन में
अब बसते हैं बनकर मीठी यादें.
वो नन्हे मन की ख्वाहिशें थीं
मेरा बचपन.
ढूँढती हूँ जिसकी आहटें मैं
कभी कभी हर कहीं,
वो था मेरा बचपन .