Sunday, September 14, 2014

तलाश



जुगनुओं सी थीं चमकती
उन नन्ही नन्ही सी दो आँखों
में सारा जहान समेट लेती थी
भोली सी अपनी मुस्कान में
जाने कितने घावों के मरहम
छुपाये रखती थी वो

झूले पे बैठ, आसमान छूती थी
आड़े तिरछे सवालों का पिटारा
जब तब पसार बैठ  जाती थी
कहती थी कि चाँद पे था उसका घर
बड़ी बड़ी बातें खूब बनाती थी वो

भूली बिसरी यादों के संग
रहती है अब, जाने गयी कहाँ

जाने किस गली में, किस मोड़ पे  
छूटा उसका हाथ; हज़ार बार
ढूंढ़ती हूँ, खुद को खुद में ही