जुगनुओं सी थीं चमकती
उन नन्ही नन्ही सी दो आँखों
में सारा जहान समेट लेती थी
भोली सी अपनी मुस्कान में
जाने कितने घावों के मरहम
छुपाये रखती थी वो
झूले पे बैठ, आसमान छूती थी
आड़े तिरछे सवालों का पिटारा
जब तब पसार बैठ जाती थी
कहती थी कि चाँद पे था उसका घर
बड़ी बड़ी बातें खूब बनाती थी वो
भूली बिसरी यादों के संग
रहती है अब, जाने गयी कहाँ
जाने किस गली में, किस मोड़ पे
छूटा उसका हाथ; हज़ार बार
ढूंढ़ती हूँ, खुद को खुद में ही
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