कभी एक शाम ढले तो
डूबते सूरज की बिखरती
लाली, काश तुम्हे मेरी आखों
में उतरती आ जाये नज़र.
बरसों बीते इस आस में
काश तुम्हारी एक मुस्कान में
हो एक नाम मेरा भी.
मैं तो पिया राहों में
तुम्हारी, छोड़ आई थी
दिल कहीं अपना।
दिन बीते, रातें बीतीं,
एक एक सिलवट गिनी है
मैंने बिस्तर पर अपने।
देखा है क्या तुमने कभी
चाँद को ज़मीन से,
ऐसे ही देखती आयी हूँ
जाने कबसे तुम्हें मैं।
सूखी धरती के मानिंद,
तड़पी हूँ तुम्हारे नेह
की बरखा के इंतज़ार में.
लहू से ख़त न लिखें हों
मैंने, पर हाँ दीवानगी तो
अपनी भी कुछ कम नहीं,
इन चिरागों की तरह एक दिन
बुझ जायेगी लौ मेरी भी.
तब पिया तुम न सोचना यूँ
कि सवेरा तो हुआ है
मगर रौशनी तुम्हारी गली
में क्यूँ नहीं?