Thursday, August 15, 2013

संदेसा......



खामोश सी, चुपचाप
बैठी है, नज़रें आसमान
पर टिकाये हुये.
इन बादलों की अठखेलियाँ, 
इस पुरवा की ठंडक
सब से है वो अनजान सी।

ढूँढती है दूर किसी
कोने में, इस अनंत नभ के
किसी टुकड़े पर, शायद उकेर
गया हो कोई, नसीब उसका कहीं
क्योंकि हाथ की लकीरें पड़ीं धुंधली,
अब तो माथे की सिलवटें चुभती हैं.

कभी तो है टटोलती अपनी मन को,
कभी ह्रदय- सागर में मोती खोजती है,
अंतरात्मा भी जब पुकारने पर गूंगी हो जाती है,
क्षितिज पर उगते सूरज से ही वो
राह अपनी रोशन कर लेना चाहती है.

हाँ! खुद के भीतर एक शोर सा उठता है,
ये कैसी ध्वनि वह खुद ही समझ न पाती है,
यकायक एक पुराने आईने के पीछे से, एक
छवि उसको ताकती है,  शंखनाद की उस
 आवाज़ में संदेसा कुछ सुनाई तो देता है.