होठों के पीछे छुपी बैठी
है मेरे मन की ख़ुशी
लबों से छलकने को है तरसती
मेरी हँसी, पर करूँ क्या
बाहर तो सन्नाटा है
सब खुद में मगन हैं
ठहर कर सुने कोई
किसी को वक़्त कहाँ है
इस सन्नाटे को चीरती मेरी
हँसी सबको शोर लगती है
मैंने कहा खुश हूँ तो घनी
रात भी मुझे भोर लगती है
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