Thursday, December 18, 2014

गुहार


ख़ुशी भी आज हमें
 मिली है यूँ कि
गम का स्वाद जाता नहीं
इन राहों पे भीड़ है कितनी,
चिराग लेकर ढूंढें तब भी मगर
अपना एक चेहरा दीखता नहीं
इन बेगानों की संगत  में 
इक तनहा कोना खोजता है दिल बेचारा
आस हमारी टुकड़े टुकड़े बिखरी,
जलते ख्वाबों के धुएं में टटोलते हैं,
रास्ता गुम हो गया कहीं

ऐ मौला मेरे, क्या कभी इस
भूल भुलैया से मिलेगी आज़ादी
बिन पिंजरे हैं, मगर कैद हैं फिर भी
तेरे सजदे में हर दफा सर झुकाया हमने
इक छोटी सी ही तो आरज़ू थी हमारी
वो भी पूरी होकर है अब तक अधूरी
तिल तिल  कर हरदम मरें बस यही
है क्या हमारी ज़िन्दगी?

बरस कितने ही बीते, मगर
 विश्वास की लौ हमने बुझने न दी
अब भी भरोसे की बेड़ियां जकड़ती हैं
पर इंतज़ार की अब इंतेहा होने को है
बरकत की बारिशें दे खुदा, मेरे मौला,
मेरे रब, इस एक ख़ुशी के वास्ते बरसो तरसे हैं,
इस ज़माने में तनहा हम, इक तू ही  तो है सहारा।
अँखियों से नदियां बहुत बहा चुके हम,
अब तो मुखड़े पे मुस्कान का आफताब खिला दे,
बस मदद दे खुदा, रहम कर, तो तेरा
धूम धाम से हम करें शुक्रिया अदा.



Sunday, September 14, 2014

तलाश



जुगनुओं सी थीं चमकती
उन नन्ही नन्ही सी दो आँखों
में सारा जहान समेट लेती थी
भोली सी अपनी मुस्कान में
जाने कितने घावों के मरहम
छुपाये रखती थी वो

झूले पे बैठ, आसमान छूती थी
आड़े तिरछे सवालों का पिटारा
जब तब पसार बैठ  जाती थी
कहती थी कि चाँद पे था उसका घर
बड़ी बड़ी बातें खूब बनाती थी वो

भूली बिसरी यादों के संग
रहती है अब, जाने गयी कहाँ

जाने किस गली में, किस मोड़ पे  
छूटा उसका हाथ; हज़ार बार
ढूंढ़ती हूँ, खुद को खुद में ही

Sunday, April 20, 2014

अभिलाषा



अधीर नयनों की तृष्णा
काँपते अधरों की सिसकियाँ
हलक तक आके रुकी, फँसी
एक अभिलाषा मेरी, देखो
कैसे धीरे धीरे दम तोड़ रही है.

Wednesday, February 12, 2014

बुझती लौ


कभी एक शाम ढले तो
डूबते सूरज की बिखरती
लाली, काश तुम्हे मेरी आखों
में उतरती आ जाये नज़र.
बरसों बीते इस आस में
काश तुम्हारी एक मुस्कान में
हो एक नाम मेरा भी.
मैं तो पिया राहों में
तुम्हारी, छोड़ आई थी
दिल कहीं  अपना।
दिन बीते, रातें बीतीं,
एक एक सिलवट गिनी है
मैंने बिस्तर पर अपने।
देखा है क्या तुमने कभी
चाँद  को ज़मीन से,
ऐसे ही देखती आयी हूँ
जाने कबसे तुम्हें मैं।
सूखी धरती के मानिंद,
तड़पी हूँ तुम्हारे नेह
की बरखा के इंतज़ार में. 
लहू से ख़त न लिखें हों
मैंने, पर हाँ दीवानगी तो
अपनी भी कुछ कम नहीं,
इन चिरागों की तरह एक दिन     
बुझ जायेगी लौ मेरी भी.
तब पिया तुम न सोचना यूँ
कि सवेरा तो हुआ है
मगर रौशनी तुम्हारी गली
में क्यूँ नहीं?